
सावन का महीना भगवान शिव की पूजा का महापर्व है। इस दौरान भक्त पवित्र नदियों से जल भरकर शिवलिंग पर चढ़ाते हैं। इस यात्रा को कांवड़ यात्रा कहा जाता है। इसमें कांवड़ को कंधे पर रखना महत्वपूर्ण है। यह भगवान शिव के प्रति अटूट भक्ति का प्रतीक है,कांवड़ यात्रा की उत्पत्ति का संबंध समुद्र मंथन की प्रसिद्ध कथा से है।
कावड़ यात्रा के पीछे की कहानी क्या है?
जब देवताओं और असुरों ने मिलकर समुद्र का मंथन किया, तो हलाहल विष निकला। यह विष संपूर्ण सृष्टि को विनाश की ओर ले जा सकता था। तभी भगवान शिव ने विष पान किया और उसे अपने कंठ में धारण कर लिया। इस कारण से वे नीलकंठ कहलाए।
कांवड़ का अर्थ क्या होता है?
‘कांवड़ ‘ शब्द हिंदी शब्द ‘कवच’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है ‘कवच’ या ‘सुरक्षा’। कावड़ मूल रूप से घुमक्कड़ भाटों द्वारा पोर्टेबल तीर्थस्थलों के रूप में उपयोग किए जाते थे। ये गाँव-गाँव घूमकर लोगों के लिए कहानियाँ सुनाते और गीत गाते थे। समय के साथ, कावड़ कला की जटिल कृतियों के रूप में विकसित हुए। इन्हें राजस्थान के लोगों द्वारा अत्यधिक महत्व दिया जाता था। कांवड़ का अर्थ है एक बांस या लकड़ी का डंडा, जिसके दोनों सिरों पर जल से भरे कलश या मटके बांधे जाते हैं। इसे कंधे पर रखकर तीर्थयात्री यात्रा करते हैं, खासकर श्रावण मास में। इसके बाद गंगाजल को भगवान शिव के मंदिरों में चढ़ाते हैं। इसे भगवान शिव के भक्तों द्वारा की जाने वाली एक धार्मिक यात्रा के रूप में भी जाना जाता है।
नियम के मुताबिक आपको कांवड़ यात्रा पूर्ण होने तक व्रत रखना होता है, आप व्रत दो वक्त या एक वक्त भी रख सकते हैं, सूर्य अस्त होने के बाद अन्न ग्रहण कर सकते हैं, लेकिन पूर्ण सात्विक भोजन हो, प्याज, लहसुन इत्यादि का सेवन वर्जित होता है. यदि गंगाजल अशुद्ध हो जाता है तो कांवड़ अपवित्र हो जाती है.
🧍♂️सबसे पहले कावड़ कौन लाया था?
पहली बार कांवड़ यात्रा करने वाले व्यक्ति को लेकर विद्वानों के अलग-अलग मत हैं, ज्यादातर लोग मानते हैं कि परशुराम ने सबसे पहले कांवड़ यात्रा की थी। उन्होंने गंगाजल लाकर पूरा महादेव शिवलिंग का जलाभिषेक किया था।कुछ विद्वानों का मानना है कि सबसे पहले भगवान परशुराम ने उत्तर प्रदेश के बागपत के पास स्थित ‘पुरा महादेव’ का कांवड़ से गंगाजल लाकर जलाभिषेक किया था। परशुराम, इस प्रचीन शिवलिंग का जलाभिषेक करने के लिए गढ़मुक्तेश्वर से गंगा जी का जल लाए थे।
🪔 धार्मिक मान्यता
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मान्यता है कि त्रेता युग में भगवान श्रीराम ने पहली बार कांवड़ यात्रा की थी। उन्होंने गंगाजल लाकर शिवलिंग पर चढ़ाया था।
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यह भी कहा जाता है कि रावण ने भी भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए गंगाजल लाया था।
कांवड़ कला का इतिहास:-
राजस्थान की कावड़ कला 400 साल पुरानी है।’कुमावत’ नामक एक कारीगर जाति ने राजस्थान के उदयपुर के पास भीलवाड़ा जिले में स्थित एक छोटे से गाँव बस्सी में कावड़ कला की सदियों पुरानी परंपरा शुरू की।कावड़ कला कहानी कहने की एक पारंपरिक शैली है जिसकी उत्पत्ति राजस्थान में हुई थी। यह सोलहवीं शताब्दी से चली आ रही है। कावड़ लकड़ी से बने पोर्टेबल मंदिर होते हैं जिनमें कई पैनल या दरवाजे होते हैं जिन्हें खोला और बंद किया जा सकता है। कावड़ परंपरा एक जटिल कला है जिसमें बढ़ईगीरी, कलात्मकता और कहानी कहने की कला एक साथ समाहित है।अफीफ के तारीख-ए-फिरोजशाही जैसे धार्मिक ग्रंथों में इसका अप्रत्यक्ष उल्लेख मिलता है, जहां इसे ‘मुहरिक‘ कहा गया है – एक लकड़ी की मेज जो अंदर और बाहर से चित्रों से ढकी होती है।
कांवड़ यात्रा मार्ग 
नीलकंठ की कांवड़ यात्रा प्राचीन बद्रीनाथ-केदारनाथ मार्ग से शुरू होती है, लेकिन अब कांवड़िये राष्ट्रीय राजमार्गों का उपयोग करते हैं। दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र के अधिकांश कांवड़िये गाजियाबाद से ऋषिकेश तक राष्ट्रीय राजमार्ग-58 मार्ग का उपयोग करते हैं। नीलकंठ मंदिर तक पहुँचने के लिए कांवड़िये सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलते हैं।
कांवड़ यात्रा के प्रकार:-
सामान्य कांवड़ : इसमें श्रद्धालु पैदल चलते हैं, बीच-बीच में रुकते हैं और गंगाजल लेकर चलते हैं।
कांवड़ यात्रा का समुद्र मंथन से क्या नाता है?
डाक कांवड़: इसमें बिना रुके तेज गति से दौड़कर गंगाजल पहुंचाया जाता है।
खड़ी कांवड़: इसमें कांवड़ को जमीन पर रखे बिना यात्रा की जाती है।
निष्कर्ष:-
कांवड़ यात्रा पर जाकर और पवित्र भजनों का जाप करके, भक्त अपने मन को शांत कर सकते हैं और यात्रा के दौरान प्रेरणादायक और रचनात्मक विचार एकत्र कर सकते हैं, जिन्हें वे वापस ला सकते हैं। यह तीर्थयात्रा भक्तों को बाहरी दुनिया के विकर्षणों से अलग होकर अपनी आध्यात्मिक यात्रा पर ध्यान केंद्रित करने में सक्षम बनाती है।